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प्रकृति और हम / अनातोली परपरा

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जब भी घायल होता है मन

प्रकृति रखती उस पर मलहम

पर उसे हम भूल जाते हैं

ध्यान कहाँ रख पाते हैं


उसकी नदियाँ, उसके सागर

उसके जंगल और पहाड़

सब हितसाधन करते हमारा

पर उसे दें हम उजाड़


योजना कभी बनाएँ भयानक

कभी सोच लें ऎसे काम

नष्ट करें कुदरत की रौनक

हम, जो उसकी ही सन्तान