Last modified on 11 मई 2010, at 01:53

देखना! एक दिन / क्रांति

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:53, 11 मई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=क्रांति |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> देखना! वह दिन ज़रूर आ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

देखना! वह दिन ज़रूर आएगा
जब औरत सिर्फ़ इसलिए
गुनाह के कटघरे में नहीं खड़ी होगी
क्योंकि वह औरत है

और न ही आदमी बैठेगा
इंसाफ़ की कुर्सी पर
सिर्फ़ इसलिए कि वह आदमी है।

देखना! वह दिन ज़रूर आएगा
जब आदमी अपने सच का इस्तेमाल
ढाल की तरह और
औरत के सच का इस्तेमाल
तलवार की तरह नहीं कर पाएगा।

देखना! वह दिन जरूर आएगा।