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आम के पत्ते (कविता) / रामदरश मिश्र
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वह जवान आदमी
बहुत उत्साह के साथ पार्क में आया
एक पेड़ की बहुत सारी पत्तियां तोड़ीं
और जाते हुए मुझसे टकरा गया
पूछा-
अंकल जी, ये आम के पत्ते हैं न
नहीं बेटे, ये आम के पत्ते नहीं हैं
कहां मिलेंगे पूजा के लिए चाहिए
इधर तो कहीं नहीं मिलेंगे
हां, पास के किसी गांव में चले जाओ
वह पत्ते फेंककर चला गया
मैं सोचने लगा-
अब हमारी सांस्कृतिक वस्तुएं
वस्तुएं न रह कर
जड़ धार्मिक प्रतीक बन गयी हैं
जो हमारे पूजा पाठ में तो हैं
किन्तु हमारी पहचान से गायब हो रही हैं।