Last modified on 14 अगस्त 2009, at 17:12

मोनालिसा के आलिंगन में / राधेश्याम बन्धु

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:12, 14 अगस्त 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राधेश्याम बन्धु |संग्रह= }} <Poem> हम इतने आधुनिक हो ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

हम इतने
आधुनिक हो गए
अपना ही घर भूल गए,

'मोनालिसा'
के आलिंगन में
ढाई-आखर भूल गए।

शहरी राधा को गाँवों की
मुरली नहीं सुहाती अब
पीताम्बर की जगह 'जीन्स' की
चंचल चाल लुभाती अब।

दिल्ली की
दारू में खोकर
घर की गागर भूल गए।

विश्वहाट की मंडी में अब
खोटे सिक्कों का शासन,
रूप-नुमाइश में जिस्मों का
सौदा करता दु:शासन।

स्मैकी
तन के तस्कर बन
सच का तेवर भूल गए।

अर्धनग्न तन के उत्सव में,
देखे कौन पिता की प्यास?
नवकुबेर बेटों की दादी
घर में काट रही बनवास।

नकली
हीरों के सौदागर
माँ का जेवर भूल गए,

हम इतने
आधुनिक हो गए
अपना ही घर भूल गए।