नीम के दो पेड़ / हरिवंशराय बच्चन
"तुम न समझोगे,
शहर से आ रहे हो,
हम गँवारों की गँवारी बात।
श्हर,
जिसमें हैं मदरसे और कालिज
ज्ञान मद से झुमते उस्ताद जिनमें
नित नई से नई,
मोटी पुस्तकें पढ़ते, पढ़ाते,
और लड़के घोटते, रटते उन्हे नित;
ज्ञान ऐसा रत्न ही है,
जो बिना मेहनत, मशक्क़त
मिल नहीं सकता किसी को।
फिर वहाँ विज्ञान-बिजली का उजाला
जो कि हरता बुद्धि पर छाया अँधेरा,
रात को भी दिन बनाता।
दस तरह का ज्ञान औ' विज्ञान
पच्छिम की सुनहरी सभ्यता का
क़ीमती वरदान है
जो तुम्हारे बड़े शहरों में
इकट्ठा हो गया है।
और तुम कहते के दुर्भाग्य है जो
गाँव में पहुँचा नहीं है;
और हम अपने गँवारपन में समझते,
ख़ैरियत है, गाँव इनसे बच गए हैं।
सहज में जो ज्ञान मिल जाए
हमारा धन वही है,
सहज में विश्वास जिस पर टिक रहे
पूँजी हमारी;
बुद्धि की आँखें हमारी बंद रहतीं;
पर हृदय का नेत्र जब-तक खोलते हम,-
और इनके बल युगों से
हम चले आए युगों तक
हम चले जाते रहेंगे।
और यह भी है सहज विश्वास,
सहजज्ञान,
सहजानुभूति,
कारण पूछना मत।
इस तरह से है यहाँ विख्यात
मैंनेयह लड़कपन में सुना था,
जल्द ही पूरी कविता टंकित कर दी जाएगी।