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देख रहा हूँ, शुभ्र चाँदनी का सा निर्झर / सुमित्रानंदन पंत

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देख रहा हूँ, शुभ्र चाँदनी का सा निर्झर
गाँधी युग अवतरित हो रहा इस धरती पर!
विगत युगों के तोरण, गुंबद, मीनारों पर
नव प्रकाश की शोभा रेखा का जादू भर!

संजीवन पा जाग उठा फिर राष्ट्र का मरण,
छायाएँ सी आज चल रहीं भू पर चेतन,--
जन मन में जग, दीप शिखा के पग धर नूतन
भावी के नव स्वप्न धरा पर करते विचरण!

सत्य अहिंसा बन अंतर्राष्ट्रीय जागरण
मानवीय स्पर्शों से भरते हैं भू के व्रण!
झुका तड़ित-अणु के अश्वों को, कर आरोहण,
नव मानवता करती गाँधी का जय घोषण!

मानव के अंतरतम शुभ्र तुषार के शिखर
नव्य चेतना मंडित, स्वर्णिम उठे हैं निखर!