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धरती की घटती तितिक्षा / मनोज श्रीवास्तव

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धरती की घटती तितिक्षा


वह धीरे-धीरे खोती जा रही है सपनों को पालने-पोसने की कुव्वत मंगलकामनाओं की इच्छा बच्चों को पुचकारने-दुलारने का ममत्त्व

खेत-खलिहान उसके ख्यालों में नहीं आते कोयल उसके आम्रलटों में उलझ कूजने की जहमत नहीं उठाती मल-मूतमय तलछटों ने वसंत के अतिथियों को सोचना बंद कर दिया है मौसम भूल गया है उसकी गलबहियाँ में नाचना, गाना, किलकारना, हुड़दंग मचाना और उर्वर शिकायतें करना

उसकी अंजुरियों में खडे हैं पर्वताकार कारखानों के दानवाकार दैत्य अमृतवर्षा करने वाले वक्ष में महाचक्रवातों और सुनामियों ने बनाए हैं तलहीन खड्ड और दर्रे जहां सड़ रही हैं उसके वात्सल्य की लाश चूर्ण हो चुका है उसके ममत्त्व का कंकाल

अब उसके पास बहुत कम हैं लहलहाने को फसलें बरसने को स्वांति नक्षत्र की फुहारे नहीं हैं बुलाने को वसंत और हेमन्त नहीं हैं उसने समय के साथ साझे में रबी और खरीफ के दौरान खलिहानों का जायजा लेना भी बंद कर दिया है

कभी वह बच्चों की अंजुरियों में संसार उड़ेल देती थी बच्चे उसकी अंजुरी में क्या-क्या नहीं पाते थे वे उसके अंजुरीभर जल में आकंठ नहा लेते थे अंजुरीभर दाने खा, अघा जाते थे अंजुरी में बेहिसाब बरक़त थी अंजुरी मोहताज़ नहीं थी वह अक्षुन्ण थी