Last modified on 26 अगस्त 2008, at 00:17

फूल झर गए / कीर्ति चौधरी

Lina jain (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 00:17, 26 अगस्त 2008 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कीर्ति चौधरी }} फूल झर गए। क्षण-भर की ही तो देरी थी अभी-...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फूल झर गए।


क्षण-भर की ही तो देरी थी

अभी-अभी तो दृष्टि फेरी थी-

इतने में सौरभ के प्राण हर गए;

फूल झर गए।


दिन-दो दिन जीने की बात थी,

आख़िर तो खानी ही मात थी;

फिर भी मुरझाए तो व्यथा भर गए-

फूल झर गए।


तुमको अौí मुझको भी जाना है-

सृष्टि का अटल विधान माना है;

लौटे कब प्राण गेह बाहर गए-

फूल झर गए।


फूलों सम आअो हँस हम भी झरें

रंगों के बीच ही जिएँ अौí मरें

पुष्प अरे गए किंतु खिलकर गए-


फूल झर गए।