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आशंका / कर्णसिंह चौहान

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लौट रहा था जब मैं
आधी रात
शूमेन की वाइन में सराबोर
ओठों पर कैवियर का स्वाद लिए
पैरों में जारी थी नृत्य की भंगिमा
बगल में हँसी ।

तभी वे दिखे
कतार में
गिरजे की ओर जाते
चेहरे पर निश्चय
ख़तरनाक इरादे
कई मेरे परिचित कवि
प्रिय छात्र
भक्तिन मीरा
और बूढ़ा प्रोफेसर ।

देखकर भी नहीं देखा
सधे क़दम गली में मुड़ गए।

उस दिन के बाद हवा हो गई नींद
मस्ती
रात भर सड़कों पर भागता
दोस्तों के दरवाज़े खटखटाता
सब ग़ायब ।

षड़यंत्र चल रहा यहाँ भारी ।
दिन में देखता हूँ उन्हें
करते इशारे
हर रात होती है कोई वारदात
भागती पुलिस
दौड़ते दमकल

टी०वी० की ख़बरों में
अचानक धमाके
अख़बार में छप जाती
असंभव कविता ।
बंद है संवाद के
तमाम दरवाज़े ।
सड़कों पर हर कहीं
मोर्चे खुदे हैं ।