भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऐसी नहिं कीजै लाल / भारतेंदु हरिश्चंद्र

Kavita Kosh से
अजय यादव (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:45, 14 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भारतेंदु हरिश्चंद्र }} <poem> ऐसी नहिं कीजै लाल, देख…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऐसी नहिं कीजै लाल, देखत सब संग को बाल;
काहे हरि गए आजु बहुतै इतराई।
सूधे क्यौं न दान लेहु, अँचरा मेरो छाँड़ि देहु;
जामैं मेरी लाज रहै, करौ सो उपाई।
जानत ब्रज प्रीत सबै, औरहू हँसेंगे अबै;
गोकुल के लोग होत बड़े ही चवाई।
’हरीचंद’ गुप्त प्रीति, बरसत अति रस की रीति;
नेकहू जो जानै कोई, प्रगटत रस जाई॥