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नये जमाने की मुकरी / भारतेंदु हरिश्चंद्र
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नये जमाने की मुकरी
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रचनाकार | भारतेंदु हरिश्चंद्र |
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प्रकाशक | नवोदित हरिश्चंद्र चंद्रिका खं० ११ सं० १ में प्रकाशित |
वर्ष | 1884 |
भाषा | हिन्दी |
विषय | |
विधा | |
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ISBN | |
विविध |
इस पन्ने पर दी गई रचनाओं को विश्व भर के स्वयंसेवी योगदानकर्ताओं ने भिन्न-भिन्न स्रोतों का प्रयोग कर कविता कोश में संकलित किया है। ऊपर दी गई प्रकाशक संबंधी जानकारी छपी हुई पुस्तक खरीदने हेतु आपकी सहायता के लिये दी गई है।
जब सभाविलास संगृहित हुई थी, तब वैसा ही काल था कि (क्यौं सखि सज्जन ना सखि पंखा) इस चाल की मुकरी लोग पढ़ते-पढ़ाते थे किन्तु अब काल बदल गया तो उसके साथ मुकरियाँ भी बदल गईं । बानगी दस पाँच देखिए--
- सब गुरुजन को बुरो बतावै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- तीन बुलाए तेरह आवैं / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- सुंदर बानी कहि समुझावै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- सीटी देकर पास बुलावै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- धन लेकर कछु काम न आव / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- मतलब ही की बोलै बात / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- रूप दिखावत सरबस लूटै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- भीतर भीतर सब रस चूसै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- सतएँ अठएँ मों घर आवै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- एक गरभ मैं सौ सौ पूत / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- नई नई नित तान सुनावै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- इनकी उनकी खिदमत करो / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- लंगर छोड़ि खड़ा हो झूमै / भारतेंदु हरिश्चंद्र
- मुँह जब लागै तब नहिं छूटै / भारतेंदु हरिश्चंद्र