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यदि मैं चाहती / चंद्र रेखा ढडवाल
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यदि मैं चाहती
तो उग आते
पंख भी
मेरे कंधों पर
और आकाश पर मनचाहे
आकार उकेर आती
लौटती तो टाँक लाती
आँचल पर चाँद-सितारे भी
. . . .
यदि मैं चल पड़ती
तो फूट पड़ते
हज़ार-हज़ार रास्ते
हर बंद दरवाज़े से शुरू होते हुए
. . . .
यदि मैं बटोरती
तो एक-एक क्षण मणि हो
सज जाता हृदय पटल पर
जिसके उजास में
मैं स्वयं को पहचानती
. . . .
पर मैं ने तो सुनी थी
नानी से एक कहानी
राजा की बेटी एक
ख़ुश्बुओं के हमाम में नहाती
तितलियों के पर पहनती
शतदल कमलनालों में सजाती
हवा के घोड़े पर सवार
एक राजकुमार आता
उसके हाथों को हाथों में लेता
और सिमट आता ब्रह्माण्ड
राजकुमारी के होने में.