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एक किरन भोर की / बुद्धिनाथ मिश्र

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एक किरन भोर की
उतराई ऑंगने।
रखना इसको सँभाल कर,
लाया हूँ माँग इसे
सूरज के गाँव से
अँधियारे का खयाल कर।
अँगीठी ताप-ताप
रात की मनौती की,
दिन पूजे धूप सेंक-सेंक।
लिपटा कर बचपन को
खाँसते बुढ़ापे में,
रख ली है पुरखों की टेक।
जलपाखी आस का
बहुराया ताल में
खुश हैं लहरें उछालकर।
सोना बरसेगा
जब धूप बन खिलेगा मन,
गेंदे की हरी डाल पर।