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पेड़ और भेड़ / ओम पुरोहित ‘कागद’
Kavita Kosh से
जब भी
मेरी आंखों में उगते है
नन्हे-नन्हे
हरे-हरे पेड़
मेरे मन को
भीतरी कोने से आ
सब तहस-नहस कर डालती है
कमबख्त एक वहशी भेड़।
तब मैं
हरियाली के तमाम सपने
भूल कर
पालने लगता हूं
वह स्वप्रघाती भेड़
और फिर
कहीं भी
कभी भी
यहां तक कि
सम्भावनाओं तक में
नहीं उग पाता
कोई साध पुरता
मरियल सा भी
हरियल सा भी
हरियल कोई पेड़।
कौन बचना चाहिये
पेड़ या भेड़?
यहीं सवाल
मुझे कचोटता रहता है