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दर्द / ओम पुरोहित ‘कागद’

रोते अंधेरों को
धूओं क ढाढ़स देना
कितना अजीब सा लगता है
परन्तु
यह सचाई है
कि लोहे को लोहा काटता है

एक दिन
भीतर उतर गया मैं
अपने ही दिन से पूछने,
हाल, बेहाल थे
भीत्र कुछ न था
बस,
अकेला था दिल।
जी चाहा--
ले चलूं बाहर उजालों में
मगर
भय ने मना कर दिया
वरना
देख लेता वह
कि दर्द उसके लिए
मैं नहीं
दुनिया संजोती है ;
मैं तो माध्यम हूं
बस,
भेंट करता हूं।