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बैसाखी पर चलते लोग/ उदयप्रताप सिंह

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इन ढालों के दुर्गम पथ पर देखे रोज़ फिसलते लोग । फिर कैसे शिखरों पर पहुंचे बैसाखी पर चलते लोग !

प्यारी नदियों की आहों पर ह्रदय तुम्हारा पिघल गया सच कहता हूँ मित्र हिमालय, जग में नहीं पिघलते लोग ।

आलीशान इबदातखाने लेकिन इनमें आए कौन दहशत के मौसम में अपने घर से नहीं निकलते लोग ।

हम क्या जानें धर्म की बातें जाकर उनसे पूछ न लो हर मौसम में पोशाकों-सा जो ईमान बदलते लोग ।

हम हैं राही प्रेम-डगर के बाज़ न आए मर कर भी दुनिया वाले कहते ठोकर खाकर यहाँ संभलते लोग ।

औरों की पीड़ा से गौतम हरगिज़ बुद्ध नहीं होते यदि वैभव की चकाचौंध के मारे नहीं बदलते लोग ।

कर्म बड़ा तो जाति बड़ी है मानो ‘उदय’ हमारी बात वरना तुम जैसे सडकों पर मिलते बहुत टहलते लोग ।