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भूत / शैलेन्द्र

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रचनाकार: शैलेन्द्र

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जीवन के शत संघर्षों में रत रह कर भी,

कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!

ज़हर बुझे तीरों से घायल हुए हरिन सा

सहसा तड़प छटपटाता मन, आंखों से यह चलता पानी!

कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी !


मरे हुए प्यारे सपनों के प्रेत नाचते अट्टहास कर,

ख़ूब थिरकते ये हड्डी के ढांचे चट-चरमर-चरमर कर,

ढंक सफ़ेद चादर से अपनी ठठरी, खोल ज़्ररा सा घूंघट--

संकेतों से पास बुलाती वह पिशाचनी,

असमय जो घुटमरी जवानी की नादानी!

कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!


तब क्षण भर को लगता जैसे, भय से खुली-खुली ये आंखें

खुली-खुली ही रह जाएंगी,

ज़रा पुतलियां फिर जाएंगी;

तेज़ी से आती जाती ये सांसे होंगी ख़त्म

मौत की क्रूर अंधेरी घिर आएगी--

भरम भरी, जितनी परिचित उतनी अनजानी!

कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी!


किन्तु, दूसरे क्षण सुन पड़ती--

कोटि-कोटि कण्ठों की व्याकुल विकल पुकारें,

अंबर की छाती बिदारने वाली नवयुग की ललकारें,

ख़ून-पसीने से लथपथ पीड़ित शोषित मानवता की दुर्दम हुंकारें!

और दीखता, दूर भागते दुश्मन के संग,

भाग रहे हैं भूत-प्रेत सारे अतीत के

व्यर्थ भीति के, उस झूठी अशरीर प्रीत के!

सम्मुख आती स्नेहाकुल बाहें फैलाए

नई सुबह रंगीन सुखों की, स्वर्ण-सुहानी!

कमज़ोरी है, जीवन के शत संघर्षों में रत रह कर भी

कभी-कभी याद आ ही जाती है बिसरी दुख भरी कहानी !


1947 में रचित