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बलभद्र ब्रज यात्रा / सूरदास

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श्याम राम के गुन नित गाऊँ । स्याम राम ही सौं चित लाऊँ ॥
एक बार हरि निज पुर छाए । हलधर जी वृंदाबन गए
रथ देखत लोगनि सुख पाए । जान्यौ स्याम राम दोउ आए ।
नंद जसोमति जब सुधि पाई । देह गेह की सुरति भुलाई ॥
आगैं ह्वै लैबै कौ धाए । हलधर दौरि चरन लपटाए ॥
बल कौ हित करि करें लगाए । दै असीस बोले या भाए ॥
तुम तौ बली करी बलराम । कहाँ रहे मन मोहन स्याम ॥
देखौ कान्हर की निठुराई । कबहूँ पाती हू न पठाई ॥
आपु जाइ ह्वाँ राजा भए । हमकौं बिछुरि बहुत दुख दए ॥
कहौ कबहुँ हमरी सुधि करत । हम तौ उन बिनु कहु दुख भरत ॥
कहा करैं ह्वाँ कोउ न जात । उन बिनु पल पल जुग सम जात ।
इहिं अंतर आए सब ग्वार । भेंटे सबनि जथा ब्यौहार ॥
नमस्कार काहूँ कौ कियौ । काहू कौं अंकम भरि लियौ ॥
पुनि गौपी जुरि मिलि सब आईं । तिन हित साथ असीस सुनाई ॥
हरि सुधि करि बुधि बिसराई । तिनकौ प्रेम कह्यौ नहिं जाई ॥
कोउ कहै हरि ब्याहीं बहु नार । तिनकौ बड्यौ बहुत परिवार ॥
उनकौं यह हम देंति असीस । सुख सौं जीवैं कोटि बरीस ॥
कौउ कहै हरि नाहीं हम चीन्ही । बिनु चीन्हैं उनकौं मन दीन्हौ ॥
निसि दिन रोवत हमैं बिछोइ । कहौ करैं अब कहा उपाइ ॥
कोउ कहै इहाँ चरावत गाइ । राजा भए द्वारिका जाइ ॥
काहे कौं वै आवैं इहाँ । भोग बिलास करत नित उहाँ ॥
कोऊ कहै हरि रिपु छै किए । अरु मित्रनि की बहु सुख दिए ॥
बिरह हमारौ कहँ रहि गयौ । जिन हमकौ अति हीं दुख दयौ ॥
कोउ कहै जे हरि की रानी । कौन भाँति हरि कौं पतियानी ॥
कोऊ चतुर नारि जो होइ । करै नहिं पतिआरौ सोइ ॥
कोउ कहे हम तुम कत पतियाईं । उनकें हित कुल लाज गवाईं ॥
हरि कछु ऐसौ टोना जानत । सबकौं मन अपनैं बस आनत ॥
कोउ कहै हरि हम बिसराईं । कहाँ कहैं कछु कह्यौ न जाई ॥
हरिकौं सुमिरि नयन जल ढारैं । नैंकु नहीं मन धीरज धारैं ॥
यह सुनि हलधर धीरज धारि । कह्यौ आइहैं हरि निरधारि ॥
जब बल यह संदेस सुनायौ । तब कछु इक मन धीरज आयौ ॥
बल तहँ बहुरि रहे द्वै मास । ब्रज बासिनि सौं करत बिलास ॥
सब सौं मिलि पुनि निजपुर आए । सूरदास हरि के गुन गाए ॥1॥