भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आत्मा बोली / अज्ञेय
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:15, 6 अगस्त 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह=हरी घास पर क्षण भर /...' के साथ नया पन्ना बनाया)
आत्मा बोली :
सुनो, छोड़ दो यह असमान लड़ाई
लडऩा ही क्या है चरित्र? यश जय ही?
धैर्य पराजय में-यह भी गौरव है!
मैं ने कहा :
पराजय में तो धैर्य सहज है, क्योंकि पराजय परिणति तो है।
मैं तो अभी अधर में हूँ-लड़ता हूँ।
आत्मा बोली :
किस बूते पर? मेरे दो ही सहकर्मी : प्यार-सिखाता है जो देना,
आशा-जो चुक जाने पर भी रिक्त नहीं होने देती है।
अब तो मैं हूँ निपट अकेली!
मैं ने कहा :
सखी मेरी, तुम भले मान लो मुझे अकिंचन
पर क्या मेरी आस्था भी नगण्य है?
दे कर-देते-देते चुक जाने पर
वही प्रेरणा देती है-मैं दे सकने को और नया कुछ रचूँ! फिर रचूँ!
अभी न हारो, अच्छी आत्मा,
मैं हूँ, तुम हो,
और अभी मेरी आस्था है!
कलकत्ता जाते हुए (रेल में), 31 अक्टूबर, 1949