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गाछ बहुत छल / जीवकान्त
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गाछ बहुत छल, हम ने बिताओल राति एकहु टा गाछ तर
बहुत डेराइत रही मेघसँ, मेघक उमड़ल ज्वारिसँ
मोन ने भीजए, देहक रोइँ बचावी मीठ फुहारसँ
टुटलहबा घर छोड़ि ने सकलहुँ, ककरो कोनो बात पर।।1।।
गाछक तर जे हवा लगइ छइ, से नहि कहियो जानल
घोर अन्हरिया, साफ इजोरियामे नहि डेग बढ़ाओल
जगलो ठोकने रही केबाड़ी, टोलक हाहकार पर।।2।।
पहिला पहरक जाग-बतकही, पछिला पहरक ओंघी
दुपहिरयामे छाहरि, बरखामे लए घूमब घोघी
हम नहि जानल, खजन चिड़ैया राति कटइए डारि पर।।3।।