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दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था / निश्तर ख़ानक़ाही
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दहक रहा था मगर बेज़बान मुझ-सा था
कि रात सर पे मेरे आसमान मुझ-सा था
सभी अज़ीज़ थे उसके मगर नहीं था वही
वो एक शख़्स कि बे-ख़नादान मुझ-सा था
छतों से चिपकी हुई बेसदा अबाबीलें
अँधेरी रात में ख़ाली मकान मुझ-सा था
लहू में काई जमी थी मगर बुरा न लगा
मेरे सिवा भी कोई ख़ुश-गुमान मुझ-सा था
कटी-फटी सी जमीने, झुके-झुके से शजर
क़रीब जाके जो देखा, जहान मुझ-सा था
पसीना उसका न टपका तेरे लहू पर कहीं
वफ़ा की राह में वो भी जवान मुझ-सा था