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नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
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नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही
ना तन में खून फ़राहम ना अश्क आंखों में
नमाज़-ए-शौक तो वाजिब बे-वजू ही सही
किसी तरह तो जमे बज़्म मैकदे वालों
नहीं जो बादा-ओ-सागर तो हां-ओ-हु ही सही
ग़र इंतज़ार कठिन है तो जब तलक ए दिल
किसी के वादा-ए-फर्दा की गुफ्तगू ही सही
दयार-ए-ग़ैर में महरम अगर नहीं कोइ
तो 'फैज़' ज़िक्र-ए-वतन रु-ब-रु ही सही