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दिल्ली में शोकसभा / प्रियदर्शन

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(अरुण प्रकाश को श्रद्धांजलि सहित)

यह जो अपने आसपास हैं इतने सारे लोग बैठे
यह जो मैं हूं इतने सारे लोगों के बीच बैठा
यह जो सभा है लगभग भरी हुई सी
यह जो इतने सारे वक़्ता
धीरे-धीरे मंच पर जाकर याद कर रहे हैं उस शख्स को
जो धीरे-धीरे मंच से बाहर चला गया
बहुत सारे लोगों ने उसे आख़िरी बरसों में नहीं देखा था
वे उसकी बीमारी और आख़िरी दिनों के उसके जीवट की चर्चा करते रहे
बहुत सारे लोगों ने उसे बहुत पहले देखा था
जब वह युवा था और उम्मीदों और कहानियों ही नहीं, कविताओं से भी भरा हुआ था
वह दूसरों के काम आता था अपनी बीमारियां छुपाता था
वह दोस्त बनाता था दुश्मन बनाता था दोस्ती याद रखता था दुश्मनी भी याद रखता था
जो याद करने आए वे सब उसके दोस्त नहीं थे
कुछ दोस्त से कुछ ज़्यादा रहे होंगे और कुछ दुश्मन से कुछ कम
लेकिन दोस्ती-दुश्मनी छूट गई थी-
इसलिए नहीं कि मौत ने उस शख़्स को दूर कर दिया था,
बल्कि इसलिए कि मौत शायद उसे कुछ ज़्यादा क़रीब ले आई
वरना इस शहर में इतने सारे लोग बिना किसी न्योते के, उसके लिए क्यों जुट आए?
वरना इस शहर में मैं जो बरसों से उससे नहीं मिला, उसकी अनुपस्थिति से मिलने क्यों चला आया?
सभा में कुछ ऊब भी थी कुछ अनमनापन भी था
सभा के ख़त्म हो जाने का इंतज़ार भी था कि सब मिलें एक-दूसरे से, कुछ अलग-अलग टोलियों में चाय पिएं और कुछ अपनी-अपनी सुनते-सुनाते अपने घर चले जाएं
लेकिन इतने भर के लिए आए दिखते लोग इतने भर के लिए नहीं आए थे।
उनके भीतर एक शोक भी था- बहुत सारी चीज़ों से दबा हुआ, दिखाई न पड़ता हुआ,
किसी अतल में छुपा बैठा।
वह कभी-कभी सिहर कर बाहर भी आ जाता था।
कभी-कभी किसी रुंधे हुए गले की प्रतिक्रिया में भिंचा हुआ आंसू बनकर आंख पर अटक जाता था
जिसे रुमालों से लोग चुपचाप पोछ लेते थे
दूसरों से छुपाते हुए।
यह सिर्फ एक शख्स के जाने का शोक नहीं था
यह बहुत कुछ के बीत जाने का वह साक्षात्कार था
जिससे अमूमन हम आंख नहीं मिलाते।
ऐसी ही किसी शोकसभा में याद आता है
जो चला गया कभी वह बेहद युवा था
उसके साथ बहुत सारे युवा दिन चले गए
कि समय नाम की अदृश्य शिला
चुपचाप खिसकती-खिसकती न जाने कहां पहुंच गई है
कब वह हमारे सीनों पर भी रख दी जाएगी
कि जो गया उसके साथ हमारा भी काफी कुछ गया है
कि उसके साथ हम भी कुछ चले गए हैं
कि एक शोक सभा हम सबके लिए नियत है।