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महानगर / संजय पुरोहित
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हां जी हां
म्हारौ सै'र बण रैयो है
महानगर
ठेका दारू रा
खुलग्या गळी गळी
रईसजादा आखी रात
नसे रै परबस
नाचण लागग्या है
रंग बिरंगी लाईटां रै
स्टैज माथै
फ्लाईओवरां री
लाग रैयी लैण
अर उण रै हेठै
अंधारै में
हुवण लाग्या है कुकरम
चमचमावंती गाड्यां रै
काळै कांच रै लारै
काळौ मुंडो करता
उजळा तुगमाधारी मिनख
चीकणा मारग
बणावण आळा मजूरां माथै
चढ रैयी है
विदेसी गाड्यां
बूढियां रै आसरै साम्हीथ
बढ़ रैयी भीड़
मिनख बण रैया
मसीन
दीतवार नै हुय
टाबर देखै
मुंडौ आपरै
सागी बाप रौ
अणपरौणीज्यो्डा छोरा-छोरी
रैवण लाग्या है
लिव इन रिस्ते सूं
सोचूं, हरखूं कै
धूळ नाखूं इण मोटे मारग माथै
म्हैंा कीं नीं कर सकूं
फगत देख रैयो हूं
कै म्हारौ सैर
बण रैयो है
महानगर