भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बादल आरो बुतरु / अमरेन्द्र

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 08:22, 10 जून 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह=बुतरु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नद्दी-नद्दी पानी दे
नै तेॅ मछली रानी दे ।

कहाँ सेॅ देभौ पानी केॅ
चमचम मछली रानी केॅ
मेघ नै आबेॅ आबै छै
पानी केॅ बरसाबै छै
बादल केॅ जाय विनती करµ
नद्दी केॅ पानी सेॅ भर ।

बादल-बादल पानी दे
नै तेॅ बिजली रानी दे ।
कहाँ सेॅ देभौ पानी केॅ
चमचम बिजली रानी केॅ
जंगल नै तेॅ छाया दै
खड़ा हुवै लेॅ पाया दै
गरम हवा ठंडैतै नै
बादल भी तेॅ ऐतै नै ।

जंगल मेघ केॅ छाया दैं
खड़ा हुवै लेॅ पाया दैं ।

कहाँ सें देबौ छाया केॅ
खड़ा हुवै लेॅ पाया केॅ
जंगल तेॅ सब कटी गेलौ
करखाना में बँटी गेलौ
गाछ लगाबें पहिलें जो
सब लोगोॅ सें कहलेॅ जो ।

बुतरु चललै गामे-गाम
गाछ लगैनें ठामें-ठाम

देखी लोगोॅ जुटी गेलै
धरती वन सेॅ पटी गेलै
जंगल-जंगल घूमी केॅ
ऐलै बादल झूमी केॅ
आरो नद्दी बहलै सब
सुख आबै दुख सहलै सब ।