भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मत / शंख घोष

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:11, 3 जनवरी 2017 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शंख घोष |अनुवादक=उत्पल बैनर्जी |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इतने दिनों में क्या सीखा
एक-एक कर बता रहा हूँ, सुन लो.
मत किसे कहते हैं, सुनो
मत वही जो मेरा मत
जो साथ है मेरे मत के
वही महत, ज्ञानी भी वही
वही अपना मानुस, प्रियतम
उसे चाहिए टोपी जिसमें लगे हों
दो-चार पंख
उसे चाहिए छड़ी
क्योंकि वह मेरे पास रहता है
मेरे मत के साथ रहता है.
अगर वह इतना न रहे?
अगर कभी कोई दुष्ट हवा लगकर
उसमें कोई भिन्न मति जाग जाए?
इसलिए ध्यान रखना पड़ेगा कि
वह दुर्बुद्धि तुम्हें कहीं जकड़ न ले.
लोग उसे जानेंगे भी कैसे?
मैं बन्द कर दूँगा सारे रास्ते — हंगामे से नहीं —
चौंसठ कलाओं से
तुम्हें पता भी है मैंने कितनी कलाएँ सीख ली हैं?

मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी