भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
निरंतरता / मनीष मूंदड़ा
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:24, 20 मार्च 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मनीष मूंदड़ा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
जीवन और मृत्यु की धाराएँ
समय का निरंतर बहाव
सपनों से भरे बहते ये बादल
सभी कुछ तो बह रहे हैं
समानान्तर
निरंतर
रुकना मानो प्रकृति के व्यवहार में नहीं
फिर भला हम क्यों रुके?
फिर भला हम क्यों थमे?
चलना ही होगा हमें
हर समय
हर पल
अग्रसर, तत्पर, निरंतर...