भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
यही बेहतर / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:44, 6 अक्टूबर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रमेश रंजक |संग्रह= }} इधर दो फूल मुँह से मुँह सटा...)
इधर दो फूल मुँह से मुँह सटाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
हमें दिन इस तरह के
रास आए नहीं ये दीगर
तसल्ली है कहीं तो पल रहा है
प्यार धरती पर
उमर की आग की परचम उठाए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर
खुले में यह खुलापन देखकर
जो चैन पाया है
कई कुर्बानियों का रंग
रेशम में समाया है
हरे जल पर पड़े मस्तूल-साए
बात करते हैं
यहीं से काट लो रस्ता
यही बेहतर