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बेस्वाद / ध्रुव शुक्ल
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पत्थर और ग़ालियाँ खाने के बाद
उसको कहते नहीं सुना कि
समाज उसकी बरदाश्त के बाहर है
एक बेस्वाद सच
अपने रास्ते चला जा रहा है
हम ही उसमें स्वाद लेने लगते हैं
वह हमारा ही फेंका हुआ पत्थर
हमें लौटा देता है
हमारा ही कोई शब्द
हम उसे कड़वा-सच कह कर झुठला देते हैं
एक दिन हम ही उसे मार डालेंगे
इस आरोप मे कि-
उसने जीना हराम कर दिया था