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अभी / दीप्ति गुप्ता
Kavita Kosh से
अभी अंधेरों से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन उजाला बन जाऊँगी मैं
सूरज में उतर जाऊँगी मैं
अभी उदासी से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन प्रफुल्लता बन जाऊँगी मैं
खिलखिलाहट में समा जाऊँगी मैं
अभी बेचैनी से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन सुकूं से लिपट जाउंगी मैं
उसे अपना वजूद बनाऊँगी मैं
अभी अश्कों से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन मुस्कराहट बन जाऊँगी मैं
खुशी में पसर जाऊँगी मैं
अभी पतझड़ से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन मधुमास बन जाऊँगी मैं
फूल सी महक जाऊँगी मैं
अभी तपिश से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन बरसात बन जाऊँगी मैं
रिमझिम-रिमझिम बरस जाऊँगी मैं
अभी घटाओं से घिरी हूँ तो क्या
एक दिन इन्द्रधनुष बन जाऊँगी मैं
रेशमी रंगों में ढल जाऊँगी मै