काग़ज़ / सुरेश सेन निशांत
इस काग़ज़ पर
एक बच्चा सीखेगा ककहरा
एक माँ की उम्मीदें
इस काग़ज़ पर उतरेंगी
चिड़िया की तरह
दाना चुगने के लिए
एक पिता देखेगा
अपने संग बच्चे का भविष्य
सँवरता हुआ
इस काग़ज़ पर सचमुच
एक लड़का सीखेगा ककहरा
एक कवि लिखेगा कविताएँ
इस काग़ज़ पर
एक-एक शब्द को लाएगा
गहन अँधेरों से ढूँढकर
हज़ारों प्रकाश-वर्ष की दूरी
तय करेगा इस छोटे से काग़ज़ पर
अपनी चेतना की
रौशनाई के सहारे
एक-एक पंक्ति को
कई-कई बार लिखेगा
तपेगा दुख की भट्टी में
कितने ही रतजगे होंगे उसके
इस काग़ज़ के भीतर
सदियों बाद भी
किसी कबीर का
तपा-निखरा चेहरा झाँकता मिलेगा
इसी तरह के किसी काग़ज़ पे
इस काग़ज़ पर
लिखे जाएँगे अध्यादेश भी
इस काग़ज़ पर
कोई न्यायाधीश
लिख देगा अपना निर्णय
क़ानून की किसी धारा के तहत
और सो जाएगा
मज़े से गहरी नींद
इस काग़ज़ पर
एक औरत लिखना चाहेगी
अपने मन और ज़िस्म पे हुए
अनाचार की कथा
इस काग़ज़ पर
एक दूरदर्शी संत लिखेगा उपदेश
जिन पे वह ख़ुद कभी भी
नहीं करेगा अमल
एक मज़दूर लिखेगा चिट्ठी
इस काग़ज़ पर
अपने घर अपनी कुशलता की
आधी सदी के बाद भी
किसी स्त्री के संदूक में
सुरक्षित मिलेगा यह काग़ज़
इस काग़ज़ से
एक बच्चा बनाएगा कश्ती
और सात समन्दर पार की
यात्रा पे निकल जाएगा