भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
देवदार / शीला पाण्डेय
Kavita Kosh से
गिरि को दाबे अड़ा खड़ा नभ
में विशाल बहुखंडी
हवा, फूल, फल, छाँव, बटोरे
पर्वत के सिर झंडी
बोओ, रोपो, सींचों, पालो,
आस किसे है पगले!
स्वाभिमान का पौरुष तन में
पाल-पोष कर रख ले
आसमान की छतरी ताने
देवदार की डंडी॥
काली, धूसर, पीली साड़ी
रैन, दिवस, गह भोरे
अदल-बदल के पहन उतारे
चोर कहाँ से छोरे!
हरी चीर में प्राण बसे
आँचल नीचे पगडण्डी॥
है बुजुर्ग-सा बैठा गिरि पर
अनुभव, हुनर बढ़ाता
भारत की अगुवानी करता
श्रद्धा फूल चढ़ाता
जनम-जनम का देवदार
घर, औषधि, कागज मंडी॥
बूँद-बूँद सब भाप बटोरे
पगड़ी धरता जाए
हौले-हौले तभी निचोड़े
नीर बरसता जाए
शीतल बौछारें वर्षा की
फहराता है ठंडी॥