परवाज़ / शर्मिष्ठा पाण्डेय
यूँ तो है तरबियत ये अपनी गंगा जल के जैसी
तूने जो चख लिया तो मैं शराब हो गयी
चंपा के फूलों को रही है कब भ्रमर की आस
तेरी एक छुअन से गुल से मैं गुलाब हो गयी
प्यासी थी किस कदर न मिली बूँद शबनमी
तुझसे मिली नज़र क्या चश्म-ए-आब हो गयी
छाई थी बेनूरी सी जलवा ए हिजाब पर
पाई जो क़ुर्ब तेरी मैं शबाब हो गयी
रहता खफा भी चाँद है बेदाग़ हुस्न से
तेरी दुआ की ज़द में लाजवाब हो गयी
क्या कहूँ हकीकत में भी वजूद कुछ नहीं
आके तेरे ख्वाबों में इन्तिखाब हो गयी
साया ही साया फैला है, मैं हूँ शज़र शपा
जो तूने रौशनी दी, माहताब हो गयी
गुमनामियों में गुम रही पहचान भी अपनी
तूने पुकारा, नज़्म की आवाज़ हो गयी
बंटती रही हूँ लम्हा लम्हा, टुकड़ों टुकड़ों में
तेरे लबों का लम्श, बेहिसाब हो गयी
बस कैफियत ही कैफियत रवां थी कफ़स में
तूने बढ़ाया हाथ मैं परवाज़ हो गयी