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सर्पिली लटें / यतीश कुमार

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तुम्हारी लटें लहरा नहीं रहीं
कम्पन अंतस का डोल रहा है

मन के उथले क्षितिज पर
सपनों की टुस्सियाँ फैल रही हैं

नाख़ून कितना भी काटो
बदस्तूर बढ़ता जा रहा है
और त्वचा बढ़ती स्थूलता से
ख़ुद आश्चर्यचकित है

धमनियों में शोर का पारा
तेजी से फैल रहा है
और यूँ पसीने में नमक की मात्रा
कम होती जा रही है

सावधान
वो नन्हा-सा सर्प तुम्हारे भीतर
अवचेतन में जन्मेगा- पनपेगा
और फिर दिग्भ्रांत केंचुली को पहन
तुम्हारी लटों में बदल लहराएगा

लपेट लो इन्हें अपने जूड़े में
ये लपटें भावनाओं की हैं
बढ़ते नाख़ून से खुरेचना
उस जमी हुई खुरचन को

कच्चे विष-दन्त ने अभी डसना सीखा नहीं
पर सीखना तो स्वाभाविक प्रवृति है
डंक मारना प्रकृति नहीं तुम्हारी
पर प्रवृत्ति प्रकृति को पैरहन ओढ़ाती है

घुंघराले बाल मेरे
मुझे और मेरी छाया
दोनों को भ्रमित करते हैं

रुद्र और बुद्ध तो
हम सब में हैं
बस लटों को बाँधना किसे आता है ...