भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसे बढ़ते जाना है / नीरजा हेमेन्द्र
Kavita Kosh से
भीड़ भरी सड़क पर, अनेक चेहरो में
एक चेहरा उसका भी था
सदियों से संघर्श करती वह
आज खड़ी हो गयी है सुदृढ़ कदमों से
तलाश ली हैं उसने अपने
पैरों के नीचे जमीन
उसे अब नहीं कहना है-
दया करो मुझ पर
वह भी हाड़-मांस से बनी है
स्पन्दन और संवेदनाओं से पूर्ण
स्त्री है वह
वह भी है अपने परिवार की पालिता
बैट्रीचालित रिक्शा चलाते हुए
भीड़ भरी सड़कों पर
तीव्र गति से आगे बढ़ रही है
अन्ततः बना ही लिया है
उसने अपने लिए
सीधा व अबाध आत्मनिर्भरता का मार्ग
जिस पर उसे बढ़ते जाना है...
चलते जाना है...