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पुरखों के भिनसारे/ रामकिशोर दाहिया
Kavita Kosh से
(स्वाधीनता दिवस पर)
लाया रखा
अमावस को भी
ताकत से उजियारे पर
सबका हींसा
एक बराबर
पुरखों के भिनसारे पर
बना नहीं मैं
पाया सीमा
विस्तारों पर चला हुआ हूँ
छांँव खुशी की
नहीं मिली है
मैं अभाव में ढला हुआ हूँ
चोटी मिली
बाप के दम से
बेटा! खड़ा सहारे पर
व्यापक सोच
नजरिया बदले
मेरे चिंतन के स्तर को
संकल्पों के
निश्चय रोकें
ऊपर
गिरते हुए कहर को
तोड़ दिया
उलझन की बेड़ी
मेरे पाँव किनारे पर
धरती ऊपर
जो फैला है
मेरा भी तो आसमान है
जंगल, जल,
आँगन को लेकर
इतना काहे परेशान है
मुँह का
कौर बनाना
हो तो आया तेरे द्वारे पर
-रामकिशोर दाहिया