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पुरखों को निमन्त्रण / असंगघोष
Kavita Kosh से
पहाड़ से
उतराई के साथ-साथ
नदी का बहना
गहराई में डूब-डूब जाता है
लहराता धवल पानी
गीतों की लय में घुलता हुआ
जूँझार गाती
माँ-ताई के कण्ठों से
फूट-फूट पड़ता है।
नदी का यों
बगैर बहाव-अवरोध
आँखों से बहते उतराना
एक दु्रत हैं
तीन ताल में
यादों से मढ़े चमड़े पर
पड़ती हुई थॉप सा।
पूर्वजों को भेजते निमन्त्रण
अपने पोते की शादी का
आँखें
सहज सजल हैं।
पुरखे आएँ या न आएँ
चाँद और सूरजमल आते हैं
उनका निमन्त्रण पा
सुबह-सुबह
इस तरह पूर्वज
और अन्त में
मेरे दादा
उनके गीतों में
जो बहती हुई नदी के मानिंद
अभी अभी
गुजरे हैं इस जहाँ से
चले आते हैं
हमारी यादों में
तैरते-डूबते
स्थिर नहीं होती
यादें!
अपना रास्ता चुनतीं
लगातार बहती आतीं
यादों की ही तो
है यह नदी!