भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
प्रभु तुम द्वन्द्व समास / ध्रुव शुक्ल
Kavita Kosh से
कोई कब तक
नदी किनारे
बैठा रहे उदास
प्रभु तुम द्वन्द्व समास
धरती सबकी माँ है
अन्यायी भी बो देते हैं
अन्न नियम से
बड़े प्रेम से उग आता है
रोज़-रोज़ ये थोड़ा-थोड़ा
मेरे भीतर क्या मरता है?
सारा सत्य लुटाकर कोई
अपना घर कैसे भरता है !
मरी हुई मछली की पीड़ा
वहीं छोड़कर सागर-तट पर
सब मछुवारे रोज़ चले जाते हैं
कवितामेरी करनी है
मेरी नैया भी तो पार उतरनी है
दे न पाया आज तक मैं
दुख की उपमा
मुझे करना क्षमा