भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मृगशावक / अनुभूति गुप्ता
Kavita Kosh से
मृग-शावक
दर-दर भटका
माँ को पाने के लिए,
अँधियारे अरण्य में
पहुँचा
उसे पुकार लगाने के लिए
दरख़्त के स्वर्णिम पुष्प-गुच्छ
दुःख से मुरझाये,
अतिशय मेघ बरसे
उसकी पीड़ा मिटाने के लिए
वीरानों में रीता पड़ा
उसका मन
उद्वेलित बेचारा,
खुद को थकाया नींद के
झोंके को बुलाने के लिए
ऐसे गुमसुम
एकाकी
अचेत पड़ा
एक कोने में,
जैसे-
तत्पर हो मरू-भूमि में
अपना जीवन मिटाने के लिए
जैसे
मेह की बूँदें
समुद्र की
निर्मल लहरों से
मिलती है,
वैसे ही मृग-शावक
जिद पकड़े बैठा है,
माँ को पाने के लिए
अनमनी बयार बहती रही
मृग-शावक के
तन-मन को
छूती रही,
मगर वह अपनी माँ की
स्मृतियों से घिरा रहा,
तल्लीन हुआ-
अपनी अंतिम साँसों को
गंगा में बहाने के लिए...!