भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मौन का सागर / शशि पाधा
Kavita Kosh से
मौन का सागर बना अपार
मैं इस पार - तू
उस पार
कहीं तो रोके अहं का कोहरा,
कहीं दर्प की खड़ी दीवार
शब्दों की नैया को बाँधे
खड़े रहे मंझधार।
शाख मान की झुकी नहीं
बहती धारा रुकी नहीं
कुंठाओं के गहन भंवर में
छूट गई पतवार
सुनो पवन का मुखरित गान
अवसादों का हो अवसान
संग ले गई स्वप्न सुनहले
खामोशी पतझार
लहरें देती नम्र निमंत्रण
संध्या का स्नेहिल अनुमोदन
अस्ताचल का सूरज कहता
खोलो मन के द्वार