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यह नादानी लगती है / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
सुख-दुख अपने पीडा प्रीतम,कब अनजानी लगती है ।
कही आप-बीती अपनी जो,नहीं कहानी लगती है ।
घिरा तमस हो चाँद सितारे,बिखरे बिखरे हैं लगते,
धरा गगन से करिए बातें,रात सुहानी लगती है ।
जग कथनी जो लगती खारी,कुछ कमियाँ होंगी अपनी,
हिले परख की जहाँ इमारत,नींव पुरानी लगती है।
कब धोखा दे देवे जीवन,इसकी-उसकी यही व्यथा ,
स्वार्थ साधना की आँधी में,हद पहचानी लगती है।
इधर प्रेम है उधर घात है,कैसे होगा अपनापन,
गुणा-भाग हो असली उनको,यह नादानी लगती है।