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वैसा कहाँ हुआ / प्रदीप शुक्ल
Kavita Kosh से
बादल गरजे, बूँदों ने पर
धरती नहीं छुआ
और भला जो हमने सोचा
वैसा कहाँ हुआ
ऐसा नहीं कि
आँख खुलेगी
रामराज्य आवाजें देगा
रामदीन के घर के आगे
बस कुबेर रथ से उतरेगा
ये भी नहीं कि
सुबह शाम अब
हर बच्चे को दूध मिलेगा
ऐसा हमने कब सोचा था
सूरज पश्चिम से निकलेगा
सोचा था अब दाल खायेगा
रोज मगर बचुआ
लोगों ने तो
स्वप्न दिखाये
थे हमको सुन्दर चमकीले
आँख खुली तो नज़र आ रहे
चेहरे सबके धूसर पीले
आशायें धुँधली
धुँधली सी
पड़ी हुई हैं मुँह लटकाये
राजा जी परदे के पीछे
छुपकर मन की बात बतायें
घाटी में भी अब ज्यादा ही
उठता रोज धुंआ
बादल गरजे, बूँदों ने पर
धरती नहीं छुआ
और भला जो हमने सोचा
वैसा कहाँ हुआ