भाषा तुम माँ हो, शिशु हैं जिज्ञासाएँ,
तुम्हारे अस्वस्ति बोध से, भूखी जिज्ञासाएँ दम तोड़ती रहेंगी ।
ऊँची होती रहेंगी इमारतें, लंबी होती जाएँगी परछाइयाँ,
एक दिन सूरज की जड़ें काट देंगी ।
सुतलियों में बंधी हिन्दी की अनपढ़ी किताबें
कार्यालय के किसी कोने में धूल खाती रहेंगी ।
हम राजभाषा नीति की पोथियाँ छापते रहेंगे ।
खोजते रहेंगे उपयुक्त पदों के लिए उचित अधिकारी ।
कुरसियाँ भरी होंगी, पर पद रिक्त रहेंगे,
एक दिन निरस्त हो जाएँगे ।
हम जो प्रवीण हैं, अँग्रेज़ी प्रमाण-पत्रों से
अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने में व्यस्त हो जाएँगे ।
लोग शायद हम पर हँसेंगे,
कि हम हिन्दी में हँसते हैं ।