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हिन्दी / मधुप मोहता

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भाषा तुम माँ हो, शिशु हैं जिज्ञासाएँ,
तुम्हारे अस्वस्ति बोध से, भूखी जिज्ञासाएँ दम तोड़ती रहेंगी ।
 
ऊँची होती रहेंगी इमारतें, लंबी होती जाएँगी परछाइयाँ,
एक दिन सूरज की जड़ें काट देंगी ।

सुतलियों में बंधी हिन्दी की अनपढ़ी किताबें
कार्यालय के किसी कोने में धूल खाती रहेंगी ।

हम राजभाषा नीति की पोथियाँ छापते रहेंगे ।
खोजते रहेंगे उपयुक्त पदों के लिए उचित अधिकारी ।

कुरसियाँ भरी होंगी, पर पद रिक्त रहेंगे,
एक दिन निरस्त हो जाएँगे ।

हम जो प्रवीण हैं, अँग्रेज़ी प्रमाण-पत्रों से
अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करने में व्यस्त हो जाएँगे ।
 
लोग शायद हम पर हँसेंगे,
कि हम हिन्दी में हँसते हैं ।