सफेद कबूतर
सन् उन्नीस सौ सैंतालिस
महीना अगस्त
जब मैं छूटा रक्तिम पंजों से
और आजादी की हुलास में उड़ता ही चला गया
उड़ान देखकर दंग था आसमान
वरूण देव ने दबा ली थी दांतों तले अंगुली
मेरा रंग सफेद झक
और आधी रात का वक्त
चारो तरफ काला घुप्प
ऐसे में मेरे पंख हवाओं में
गुलाबी ठण्ड भर रहे थे
मेरा आजाद तन
पूर्णीमा के चाँद से भी ज्यादा
दमक रहा था
एक कबूतर
अंधेरे के खिलाफ
पहली बार उड़ान भर रहा था
खुश थे सभी देवी-देवता
कृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र
दे दिया खुशी से
इन्द्रधनुष ने दिए दो रंग उपहार में
हरे रंग को एक पंख पर
दूसरे पर पर केशरिया
पीठ के बीचो-बीच
घूमते हुए सुदर्शन चक्र को लिए
मैं आधी सदी से उड़ रहा हूँ
इन्तजार कर रहा हूँ
कब सुबह हो और उतरूँ
अपने देश की आजाद धरती {É®ú… ।