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ब्याव (6) / सत्यप्रकाश जोशी

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नई कांन्ह ! नईं
थारौ म्हारौ ब्याव कोनी हो सकै !

परण्यां बिना ई
हर सिझ्यां
म्हैं थारी बाट निहारी,
लोगां रा बोल सह्मा,
घरवाळां रा घणा घणा तोख उठाया।
तौ ई म्हैं नीं हारी रे कांन्ह ! नीं हारी !

थारै हाथां सिणगार करायौ,
थनै कोड सूं सिणगारयौ,
म्हैं थारौ अंस बणगी,
थनै म्हारौ अंस बणायौ,
थारा दुख में दुख जांण्यौ,
थारा सुख नै सुख मांन्यौ,
थारी रीस आदरी,
थारै मनावण रूसणा करया,
घण रींझी, घणी खीजी,
थारै वधण री
कांमना करी।
थनै रैकारौ देती देती
अबै ‘‘ नाथ ’’ किंयां पुकारूं ?

नई कांन्ह ! नईं
थारौ म्हारौ ब्याव कोनी हो सकै !

ओ तौ थारौ थारा सूं
नै म्हारौ म्हारा सूं ब्याव हो जासी।