Last modified on 15 दिसम्बर 2010, at 22:12

उस्मान अली / नारायण सुर्वे

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:12, 15 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=नारायण सुर्वे |संग्रह= }} Category:मराठी भाषा {{KKCatKavi…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: नारायण सुर्वे  » उस्मान अली

तगड़ा, ऊँचा
तांबे जैसा रंग
रहन-सहन में भी दखनी ढंग
हैदराबादी...
पाँवों के ताक़ तवर तने
दो बीवियाँ-ग्यारह बच्चे
मज़ाक में कहता था : "यह मेरा क़बीला है"

"तो जंग से वापिस आए थे
सन छियालिस में जहाज़ पर थे
बग़ावत कर बैठे; अँग्रेज़ों से
कफ़न बाँध कर;
तीनों झण्डे फहराए, गोले दागे
लोग सभी आए
मगर लीडर नहीं आए
हारे तो नहीं; लेकिन
हारने के बराबर ही था वह मंज़र
बाद में मुन्सिपाल्टी में चपरासी बने"
कहते-कहते रुक गया वह

"ऊपर जा--यह भेण्डीबाज़ार इस्कूल है
बड़े जनाब मिलेंगे,
उस्मान अली का सलाम बोलना
सलाम करना
जल्दी वापिस आना"

फिर से चलते-चलते कहने लगा :
"दो बीवियाँ हैं मेरी
एक चूल्हा सम्हालती है
दूसरी, होजरी का काम
मालूम नहीं, ये औरतें भी
कितनी समझदार होती हैं ।
सम्हालती हैं मुझे...
और क़बीले को भी..."

"बड़ा लड़का मांजा-पतंग बेचता है चौपाटी पर
और मैं शाम को छुट्टी के बाद
'आसान क़ायदा' पढ़ाता हूँ बड़ों को
सब लेटर बाँटने के बाद
घर जाएँगे, खाना खाएँगे
तुम मुसलमान के घर खाना खाओगे ना...
अबे गधे, आदमी सब जगह बराबर होते हैं
काम की जगह एक है तो
घर की जगह भी एक रहेंगे
जहाज़ पर की ज़िन्दगी मे मैंने यही सीखा है ।"

उस्मान अली खलासी
छियालीस के ग़दर का
नियमित रूप से नमाज़ पढ़ता था
छोटी-सी चटाई, और सफ़ेद-सा रूमाल
होता था उसके पास
नमाज़ पढ़ते समय कुछ भी हो
वह बिना ग़लती किए घुटनें टिकाता था
और तब तक मैं उसके साहब की
'बेल' सम्हालता था ।

बाल-बच्चोंवाला उस्मान अली
ग़दरवाला उस्मान अली
मज़हब सम्हाल कर भी दोस्ती निभानेवाला
उस्मान अली

काफ़ी महीने बीत गए
उस्मान अली आया ही नहीं
उसका पता नहीं चला ।

चीट्ठियाँ बाँटते-बाँटते
बेचैन-सा उसके दरवाज़े पर खड़ा रहा मैं
उस्मान अली को पहचान नहीं सका ।
पीला, दुबला-पतला
"क्या बात है उस्मान अली ?"

"आओ, अंदर आओ
रसूल, चाय की प्याली ले आना मामू को ।"

बैठ गया मैं ।
"चार महीनों में घर के
ग्यारह आदमियों को क़ब्र में दफ़ना के बचा हू~म
कभी इधर के दंगों में कभी हैदराबाद के
क़ब्रिस्तान में दौड़ता रहा
माँ-बाप इसी झटके से गए
भाई भी गया,
एक बीवी मर गई
और हम दोनों के बच्चे भी ।
अब दिल नहीं लगता
कमरा बेच डालूँगा
सबके पैसे बेबाक कर
सिकन्दराबाद चला जाऊँगा
वहीं पर क़ब्र में दोनों पाँव रखूँगा
अपने मुल्क में...
सबको मेरा ख़ुदा हाफ़िज़ कहना ।"

सुन कर मेरे होश उड़ गए
कैसे समझाऊँ
उसी का जुमला याद आया :
"हारे तो नहीं, लेकिन
हारने के बराबर ही वह मंज़र था"

ख़ुदा हाफ़िज़,
उस्मान अली
ख़ुदा हाफ़िज़ !


मूल मराठी से निशिकांत ठकार द्वारा अनूदित