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सभ्य भेड़िए / विमल कुमार

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जिन लोगों ने मुझे कहा-‘छिनाल’
उनमें से कइयों को मैं जानती हूँ
जानती हूँ
वे रात के अँधेरे में चाहते हैं
मुझसे मिलना
बताए बग़ैर अपनी बीवियों को

कई तो थे कल तक उनमें
मेरे भी दोस्त
कहते थे दोनों जगह
हो गया हूँ-अंधा तुम्हारे प्रेम में
दरअसल उन्हें नहीं चाहिए था प्रेम
हैं वे भीतर से भेड़िये
आखेट करने निकले हैं
इस शहर में

जिन लोगों ने मुझे बचाया था
इन भेड़ियों से
उनमें से भी कइयों को
जानती हूँ मैं
हैं ये भी भेड़िये
सभ्य और शालीन
रहते हैं लगाए मुखौटे
अपने चेहरे पर हरदम
चाहते हैं इन्हें भी मिल जाए
कोई हड्डी
गुपचुप तरीके से
नहीं हो ख़बर किसी को कानो-कान भी

जानती हूँ उन्हें भी,
जो नहीं जाती बिस्तरों पर किसी के
पर जाने का एक स्वांग
रचती हैं
भ्रम में फँसाए रखती हैं भेड़ियों को
अपने रंगीन जादू से

जो चली जाती हैं बिस्तर पर
भोली और निर्दोष हैं
पर जो नहीं जातीं
वे अपना काम निकाल लेती हैं
बड़ी चालाकी और बारीकी से
विरोध करती हैं
अपने स्त्रीत्व को बचाए
रखने के लिए

पर्दे के पीछे
दरअसल हमेशा कुछ लोग होते हैं ऐसे
जो सभ्य कहे जाते हैं
पर सारा खेल वही खेलते हैं

मैं छिनाल जरूर कही जाती हूँ
पर इस तरह का कोई खेल नहीं खेलती
जो लोग खेल खेलते हैं
वे कभी पकड़े नहीं जाते
सामने भी नहीं आते
किसी विवाद में
चुपचाप रहते हैं

मैं सब कुछ जानती हूँ
पक्ष और विपक्ष भी
इसलिए लड़नी पड़ती है
मुझे अपनी लड़ाई
दोनों मोर्चों पर
हर बार इतिहास में