Last modified on 16 दिसम्बर 2010, at 00:50

बिना तकिए के प्यार / विमल कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:50, 16 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विमल कुमार }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मेरी पत्नी ने कहा मैं कोई…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरी पत्नी ने कहा
मैं कोई तकिया लगाकर नहीं सोती
मेरे तकिए में नींद मर गई है,
नींद मर गई है तो ख़्वाब सारे मर गए हैं
नहीं है उसमें मेरे आँसू
वे सूख गए हैं,

चाँद-तारों की बात तो बहुत दूर है,
बादलों की तो मैं नहीं कर सकती कल्पना
अपने बच्चों के लिए
और तुम्हारे अच्छे स्वास्थ्य की कामना लिए
घसीट रही हूँ यह ज़िंदगी

तकिया तो मैं देना चाहता था एक
अपनी पत्नी को
पर मेरे तकिए में न हवा है
न रूई है,
सिलाई भी उघड़ी हुई
काँटे हैं उसमें छिपे अपने वक़्त के

काँटों से ही मैं उलझता रहा हूँ
अपनी पत्नी से वर्षों से
बगैर तकिए के प्यार करता रहा हूँ