कौन कहता
कल्पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
निस्ताप होती?
मैं महाबलीपुरम में
सागर किनारे पड़ी
औ' कुछ फ़ासले पर खड़ी चट्टानें
चकित दृग देखता हूँ
और क्षण-क्षण समा जाता हूँ उन्हीं में
और जब-जब निकल पाता,
पूछता हूँ--
कौन कहता
कल्पना
सुकुमार, कोमल, वायवी, निस्तेज औ'
निस्ताप होती?
वर्ष एक सहस्त्र से भी अधिक बीते
कल्पना आई यहाँ थी
पर न सागर की तरेगें
औ'
न लहरे बादलों के
औ' न नोनखारे झकोरे सिंधु से उठती हवा के
धो-बहा पाए,
उड़ा पाए
पड़े पद-चिह्न उसके पत्थरों पर...
औ' मिटा भी नहीं पाएँगे
भविष्यत् में
जहाँ तक मानवी दृग देख पाते।
कल्पना आई यहाँ पर,
और उसके दृग-कटाक्षों से
लगे पाषाण कटने-
कलश, गोपुर, द्वार, दीर्घाएँ,
गवाक्ष, स्तंभ, मंडप, गर्भ-गृह,
मूर्तियाँ और फिर मूर्तियाँ, फिर मूर्तियाँ
उनमुक्त निकालीं
बंद अपने में युगों से जिन्हें
चट्टानें किए थीं-
मूर्तियाँ जल-थल-गगन के जंतु-जीवों,
मानवों की, यक्ष-युग्मों की अधर-चर,
काव्य और पुराण वर्णित
देवियों की, देवताओं की अगिनती-
विफल होती,
शीश धुनती।
यहाँ वामन बन त्रिविक्रम
नापते त्रैलोक्य अपने तीन डग में,
और आधे के लिए बलि
देह अपने प्रस्तुत कर रहे हैं।
यहाँ दुर्गा
महिष मर्दन कर
विजयिनी का प्रचंडकार धारे।
एक उँगली पर यहाँ पर
कृष्ण गोवर्धन सहज-नि:श्रम उठाए
तले ब्रज के गो-गोप सब शरण पाए,
औ' भगीरथ की तपस्या यहाँ चलती है कि
सुरसरि बहे धरती पर उतरकर,
सगर के सुत मुक्ति पाएँ।
उग्र यह कैसी तपस्या और संक्रमक
कि वन में हिंस्र पशु भी
ध्यान की मुद्रा बनाए।...
और बहुत कुछ धुल गया संस्कार बनकर
जो हृदय में
शब्द वह कैसे बताए!
कविता का शेष अंश शीघ्र ही टंकित कर दिया जाएगा।