Last modified on 27 दिसम्बर 2010, at 21:37

सत्य / पूरन मुद्गल

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:37, 27 दिसम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=पूरन मुद्गल |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}} <poem> मैंने आँखें बन्…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैंने
आँखें बन्द कर लीं / हर तरफ़ से
कि / अभी नज़र आया सत्य
कहीं बिखर न जाए
रूपांतरित हो
अदृश्य न हो जाए
पल भर में / यूँ ग़ायब हो जाना
क्या सत्य का धर्म है
नहीं न
किंतु
सत्य को पकड़ने के
क्षण का
यही धर्म है
सुरक्षित रखने हेतु उस क्षण को
आँखें सहज ही मुंद जातीं
ताकि आँख खुल सके ।